Gangotri Glacier: गंगोत्री ग्लेशियर 10 फीसदी पिघला! क्या आ रही बड़ी आफत? रिसर्च में चौंकाने…

गंगोत्री ग्लेशियर गंगा नदी का प्रमुख स्रोत है. इसके संबंध में एक चौंकाने वाली बात सामने आई है. IIT इंदौर और अंतरराष्ट्रीय सहयोगियों की मदद से की गई रिसर्च में पता चला है कि गंगोत्री ग्लेशियर पिछले 40 वर्षों में लगभग 10 फीसदी पिघल चुका है. इस स्टडी का नेतृत्व डॉ. पारुल विंजे (ग्लेशी-हाइड्रो-क्लाइमेट लैब, IIT इंदौर) ने किया. इसमें अमेरिका के चार विश्वविद्यालयों और नेपाल के ICIMOD के वैज्ञानिक भी शामिल थे. रिसर्च जर्नल ऑफ द इंडियन सोसाइटी ऑफ रिमोट सेंसिंग में प्रकाशित हुआ है. इसमें उपग्रह आंकड़े और 1980-2020 तक के वास्तविक डेटा का इस्तेमाल कर गंगोत्री ग्लेशियर सिस्टम (GGS) का विश्लेषण किया गया.
स्टडी से कई चौंकाने वाले फैक्ट सामने आए, जिसमें पता चला है कि 1980-90 में गंगा के प्रवाह में बर्फ पिघलने का योगदान 73% था, जो 2010-20 में घटकर 63% रह गया. अब प्रवाह में बारिश का 11% और भूजल का 4% योगदान देखा गया. पहले गंगा का अधिकतम प्रवाह अगस्त में होता था, अब यह जुलाई में होने लगा है. 2001-2020 के दौरान औसत तापमान 1980-2000 की तुलना में 0.5°C बढ़ा. इस दौरान सर्दियों का तापमान 2°C घटा और अधिक बर्फबारी हुई, जिससे पिघलने का हिस्सा 63 फीसदी तक अपने पुरानी स्थिति में लौट आया.
जलवायु परिवर्तन के स्पष्ट संकेत
स्टडी बताती है कि जलवायु परिवर्तन के कारण हिमालयी क्षेत्रों में बर्फबारी कम हो रही है. गर्मी में जल्दी बर्फ पिघलने से फ्लो की टाइमिंग बदल गई है. लंबे समय में स्नो मेल्टिंग घट रही है और बारिश पर निर्भरता बढ़ रही है. नदी विशेषज्ञ कल्याण रुद्र के अनुसार हिमालयी ग्लेशियर हर साल औसतन 46 सेमी मोटाई खो रहे हैं. गंगोत्री का स्नाउट लगातार पीछे खिसक रहा है. मई 2025 में The Cryosphere Journal में प्रकाशित अन्य अध्ययन ने भी 2017-2023 के बीच गंगोत्री ग्लेशियर के जल आयतन में कमी दर्ज की थी.
गंगा और जल संसाधनों पर खतरा
गंगोत्री ग्लेशियर का पिघलना सिर्फ वैज्ञानिक चिंता नहीं, बल्कि उत्तर भारत की जल सुरक्षा से जुड़ा सवाल है. गंगा बेसिन की खेती पर लाखों किसानों की आजीविका निर्भर है, जो प्रभावित हो सकती है. पीक डिस्चार्ज का समय बदलने से हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स पर असर पड़ने की आशंका है. उच्च पर्वतीय क्षेत्रों और मैदानी इलाकों में जल उपलब्धता घट सकती है. शोधकर्ता मोहम्मद फारूक आजा के अनुसार, स्नो मेल्टिंग का कम होना जलवायु परिवर्तन का सीधा संकेत है. यह पॉलिसी मेकर के लिए जल संसाधन प्रबंधन और ग्लेशियर संरक्षण की रणनीति बनाने का समय है.
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