राजनीति

अमर्यादित नहीं हो सकती है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

जब हम विरोध, आलोचना और असहमति के वास्तविक स्वरूप को भूलते हैं तब हमारी अभिव्यक्ति घृणा और नफरत में बदल जाती है। मौजूदा समय में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय विचार के संगठनों एवं कार्यकर्ताओं पर टिप्पणी का स्वर ऐसा ही दिखायी पड़ रहा है, जो अमर्यादित है। सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसी ही अमर्यादित अभिव्यक्ति के मामलों की सुनवाई के दौरान बहुत महत्वपूर्ण बातें कहीं है, जिन पर हमें गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की रीढ़ है। इस पर किसी प्रकार के बाहरी प्रतिबंध लगाना उचित नहीं होगा। लेकिन यदि इसी प्रकार अमर्यादित लिखा-पढ़ी, बयानबाजी और कार्टूनबाजी जारी रही तब समाज में वैमनस्य और सांप्रदायिक तनाव को फैलने से रोकने के लिए कुछ न कुछ युक्तियुक्त प्रबंध करने ही पड़ेंगे। सोशल मीडिया के इस दौर में किसी को भी अमर्यादित और असीमित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नहीं दी जा सकती है। नागरिकों को भी समझना चाहिए कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की एक मर्यादा है, उसे लांघना किसी के भी हित में नहीं है। उचित होगा कि नागरिक समाज इस दिशा में गंभीरता से चिंतन करे। सर्वोच्च न्यायालय ने उचित ही कहा है कि “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गलत इस्तेमाल समाज में नफरत और विघटन को जन्म दे सकता है। इसलिए नागरिकों को चाहिए कि वे जिम्मेदारी से बोलें, संयम रखें और दूसरों की भावनाओं का सम्मान करें”। 
हमारे यहाँ तो महापुरुषों ने भी कहा है कि जो व्यवहार हम अपने लिए अपेक्षित करते हैं, वही व्यवहार हमें सामने वाले के साथ करना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय में न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना और न्यायमूर्ति केवी विश्वनाथन की पीठ के सामने आया वजाहत खान का मामला ऐसा ही है, जिसमें हिन्दू देवी पर तो आपत्तिजनक पोस्ट कर रहा है लेकिन इस्लाम के बारे में आपत्तिजनक पोस्ट करने वालों के विरुद्ध शिकायत दर्ज करा है। जब पलटकर किसी ने हिन्दू धर्म का अपमान करने के आरोप में उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी, तो वह न्यायालय में पहुँच गया है। याद हो कि सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर शर्मिष्ठा पनौली ने ऑपरेशन सिंदूर के समय भावावेश में आकर कोई आपत्तिजनक टिप्पणी की थी। हालांकि जब उसे अपनी गलती का अहसास हुआ तो उसने बिना शर्त माफी भी माँग ली और अपना वह वीडियो भी हटा लिया था। लेकिन इसके बावजूद वजाहत खान ने उसके खिलाफ एफआईआर दर्ज करा दी थी। हालांकि ऐसा करते समय वजाहत खान ने अपने गिरेबां में झांककर नहीं देखा कि वह क्या कर रहा है? जब आप अपनी आस्था पर कोई आपत्तिजनक टिप्पणी सुनना पसंद नहीं करते तब आपको दूसरों के देवी-देवताओं पर अभद्र टिप्पणियां करने का अधिकार किसने दे दिया है? अच्छा ही हुआ कि वजाहत खान जैसों को आईना दिखाने के लिए हिन्दू देवी-देवताओं पर आपत्तिजनक टिप्पणियां करने पर उनके विरुद्ध भी प्रकरण दर्ज करा दिया गया है। अब उन्हें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मोल समझ आएगा। न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना और न्यायमूर्ति केवी विश्वनाथन की पीठ ने कहा है कि “लोगों को हेट स्पीच क्यों अटपटे और गलत नहीं लगते हैं। ऐसे कंटेंट पर नियंत्रण होना चाहिए। साथ ही लोगों को भी ऐसे नफरत भरे कंटेंट को शेयर करने और लाइक करने से बचना चाहिए”। 

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इसी प्रकार, सर्वोच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति अरविंद कुमार की पीठ ने इंदौर के कार्टूनिस्ट हेमंत मालवीय के बेहद आपत्तिजनक कार्टून को लेकर चिंता व्यक्त करते हुए सख्त टिप्पणी की है। न्यायालय ने कार्टूनिस्ट की मानसिकता पर प्रश्न उठाया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को लेकर बनाए गए इस आपत्तिजनक कार्टून को लेकर सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि “आजकल कार्टूनिस्ट और स्टैंडअप कॉमेडियन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग कर रहे हैं। क्या ये लोग कुछ भी बनाने और बोलने से पहले सोचते नहीं है?” न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर इस प्रकार के घृणित व्यंग्य चित्रों को संरक्षण नहीं दिया जा सकता है। हेमंत मालवीय के कार्टून में कोई परिपक्वता नहीं है। ये वास्तव में भड़काऊ है”। याद हो कि इस कार्टूनिस्ट के मामले में मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय भी फटकार लगा चुका है। उच्च न्यायालय ने जब कार्टूनिस्ट की जमानत याचिका खारिज की तो उसने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था लेकिन यहाँ भी उनके कृत्य पर कोई राहत नहीं मिली है। हेमंत मालवीय के कार्टून में कोई कलात्मक अभिव्यक्ति भी नहीं है। अपनी वैचारिक और राजनीतिक खुन्नस निकालने के लिए इस प्रकार के लोग कला को भी बदनाम करते हैं, जो अभिव्यक्ति की सशक्त माध्यम हैं। मजेदार तथ्य यह कि हेमंत मालवीय का बचाव कर रहे उनका भी वकील यह मानता है कि “हाँ, ये घटिया कार्टून है। लेकिन क्या ये अपराध है? नहीं, यह अपराध नहीं हो सकता। यह आपत्तिजनक हो सकता है लेकिन अपराध नहीं”। अब यह अपराध है या नहीं, यह तो न्यायालय तय करेगा लेकिन मालवीय का वकील कम से कम यह तो स्वीकार ही कर रहा है कि कार्टून घटिया है। आरोप यह हैं कि उनका कार्टून प्रधानमंत्री और एक राष्ट्रीय संगठन का अपमान ही नहीं करता है अपितु सांप्रदायिकता को भी भड़काता है। हेमंत मालवीय की शिकायत दर्ज करानेवाले सामाजिक कार्यकर्ता विनय जोशी आरोप लगाए हैं कि “मालवीय ने सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक सामग्री अपलोड करके हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाई और सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ा”। उनकी ओर से दर्ज करायी गई एफआईआर में कई ‘आपत्तिजनक’ पोस्ट का उल्लेख किया गया है, जिनमें भगवान शिव पर कथित रूप से अनुचित टिप्पणियों के साथ-साथ मोदी, आरएसएस कार्यकर्ताओं और अन्य लोगों के बारे में कार्टून, वीडियो, तस्वीरें और टिप्पणियाँ शामिल हैं। इससे स्पष्ट होता है कि हेमंत मालवीय ने पहली बार आपत्तिजनक कार्टून नहीं बनाया था, बल्कि यह उनका नियमित अभ्यास है। न्यायालय के अनुसार, इस प्रकार की प्रवृत्तियों को रोका जाना अत्यंत आवश्यक है।
बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय की इस सलाह पर नागरिक समाज को न केवल चिंतन-मनन करना चाहिए अपितु उसका अनुकरण भी करना चाहिए- “नागरिकों को अपनी बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी की कीमत समझनी चाहिए और इसके साथ-साथ स्व-नियंत्रण और संयम का पालन करना चाहिए”। सर्वोच्च न्यायालय ने तो यह भी कहा है कि सोशल मीडिया पर बढ़ती विभाजनकारी प्रवृत्तियों पर रोक लगाई जानी चाहिए। न्यायालय ने केन्द्र और राज्य सरकारों को कहा है कि वे नफरत फैलाने वाले भाषणों को रोकें। हालांकि न्यायालय ने किसी भी प्रकार की सेंसरशिप की बात से इनकार किया। यानी नागरिकों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित नहीं होनी चाहिए। इसके लिए न्यायालय ने वकीलों एवं सरकारों से सुझाव भी माँगे हैं। हालांकि यह राह बहुत कठिन है कि सरकार किसी प्रकार का प्रतिबंध भी न लगाए और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर नफरती सोच पर लगाम भी लगा ले। इस दिशा में यदि कहीं कोई राह दिखायी देती है, तो वह जागरूक नागरिक समाज है। समाज को ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दुरुपयोग को रोकने के लिए आगे आना होगा। जब नफरती भाषण करनेवालों को प्रोत्साहित करने की अपेक्षा हतोत्साहित किया जाने लगेगा, तब बहुत हद तक इस पर नियंत्रण हो जाएगा। यहाँ राष्ट्रीय विचार के कार्यकर्ताओं के धैर्य की सराहना करनी होगी कि वे नफरत की बौछारों को अनदेखा करते हुए आगे बढ़ते रहते हैं। जबकि अन्य विचार या संप्रदाय के प्रति अमर्यादित बयानबाजी होती है, तो तत्काल उग्र प्रतिक्रिया देखने को मिलती है। शायद इसलिए ही सबने हिन्दू धर्म, हिन्दू संगठन और हिन्दू समाज को पंचिंग बैग समझ लिया है। इस पर लगाम लगनी ही चाहिए। बहरहाल, सर्वोच्च न्यायालय के इस आग्रह का पालन व्यापक स्तर पर हम सबको करना चाहिए, जिसमें न्यायालय ने कहा कि “लोग स्वयं से जिम्मेदारी निभाएं और अपनी बातों में संयम बरतें”।
– लोकेन्द्र सिंह             
सहायक प्राध्यापक, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल (मध्यप्रदेश)

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