राजनीति

parliament is a platform for dialogue and debate not for uproar

लोकतंत्र की सबसे बड़ी पहचान उसकी संसद होती है। संसद वह संस्था है जहां जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि राष्ट्र की नीतियों, योजनाओं और कानूनों पर विचार-विमर्श करते हैं। यह वह सर्वाेच्च मंच है जहाँ विभिन्न विचारधाराएं और दृष्टिकोण टकराते हैं और देशहित में समाधान निकलता है। लेकिन दुर्भाग्यवश आज भारतीय संसद की छवि हंगामे, तोड़फोड़, शोर-शराबे और गतिरोध का पर्याय बनती जा रही है। हाल ही में संपन्न मानसून सत्र इसकी बानगी था, जो आरंभ से अंत तक त्रासद हंगामे की भेंट चढ़ गया। यह सत्र बेहद निराशा एवं अफसोसजनक रहा, क्योंकि सरकार और विपक्ष में टकराव उग्र से उग्रत्तर हुआ। राज्यसभा में केवल 41.15 घंटे और लोकसभा में 37 घंटे काम हुआ। संवाद एवं सौहाई की कमी दिखी, कई सवाल अधूरे रहे, जिनका जवाब देश जानना चाहता था। यहां दोनों पक्षों से ज्यादा समझदारी, सौहार्द और संतुलित नजरिये की अपेक्षा थी, लेकिन देशहित को दोनों पक्षों ने नेस्तनाबूद किया। यह स्थिति केवल दुखद ही नहीं बल्कि लोकतंत्र के भविष्य के लिए गंभीर चिंता का विषय भी है।

लोकसभा के मानसून सत्र के लिए कुल 120 घंटे चर्चा के लिये निर्धारित थे, लेकिन कार्यवाही मात्र 37 घंटे ही चल पाई। यानी 70 प्रतिशत से अधिक समय लोकसभा में और 61 प्रतिशत से ज्यादा समय राज्यसभा में हंगामे और शोर-शराबे की भेंट चढ़ गया। संसद में बिताया गया प्रत्येक घंटा जनता के करोड़ों रुपये की कमाई से संचालित होता है। जब वही समय व्यर्थ हो जाए तो यह सीधे-सीधे जनता के साथ अन्याय है। गुजरात के एक निर्दलीय सांसद ने यह प्रश्न उठाया भी कि जो सांसद हंगामा कर सदन को ठप कर देते हैं, क्या वे जनता के धन की बरबादी की भरपाई करेंगे? यह प्रश्न केवल प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि लोकतंत्र के प्रति हमारी गंभीरता की कसौटी भी है। काम कम, हंगामा अधिक-आखिर हमारे राजनीतिक दल एवं जनप्रतिनिधि लोकतंत्र की मर्यादा एवं आदर्श को तार-तार करने पर क्यों तुले हैं? कैसी विडम्बना है कि लोकसभा की कार्यवाही के लिए 419 तारांकित प्रश्न शामिल किए गए थे और इनमें से महज 55 का मौखिक उत्तर मिल सका।

लोकतंत्र में असहमति स्वाभाविक है और आवश्यक भी। विपक्ष का काम ही है सवाल उठाना, सत्ता को जवाबदेह बनाना। लेकिन यह काम हंगामे, नारेबाजी और सदन की कार्यवाही बाधित करने से नहीं हो सकता। संसद संवाद का मंच है, न कि संघर्ष का अखाड़ा। दुर्भाग्य यह है कि आज बहस और तर्क की जगह हंगामे और टकराव ने ले ली है। इससे न तो जनता की समस्याओं पर गंभीर विमर्श हो पाता है और न ही संसद की गरिमा सुरक्षित रह पाती है। सत्र शुरू होने के पहले कार्य मंत्रणा समिति में सरकार और विपक्ष के बीच कुछ मुद्दों पर चर्चा की सहमति बनी थी। लेकिन, सत्र शुरू होने के साथ ही उसे भुला दिया गया। संसदीय परंपरा में विरोध भी अधिकार है, लेकिन इसकी वजह से सदन की गरिमा और उसके कामकाज पर असर पड़ना दुर्भाग्यपूर्ण एवं चिन्ताजनक है।

इसे भी पढ़ें: विधेयक पर हंगामा क्यों, जब मुद्दा है राजनीतिक शुचिता का

भारत का हर नागरिक संसद से अपेक्षा करता है कि वहां उसकी समस्याओं पर चर्चा होगी-बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार, शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा जैसे मुद्दे प्राथमिकता पाएंगे। लेकिन जब टीवी स्क्रीन पर वह अपने प्रतिनिधियों को मेज थपथपाते, नारे लगाते और वेल में जाकर हंगामा करते देखता है तो उसका विश्वास टूटता है और मन आहत होता है। उसे लगता है कि जिन नेताओं को उसने वोट देकर भेजा था, वे उसके हितों की बजाय केवल राजनीति का खेल खेल रहे हैं। यही कारण है कि आज लोकतंत्र के प्रति आम नागरिक का मोहभंग बढ़ रहा है। वैसे भी यह मानसून सत्र ऐसे वक्त हो रहा था, जब भारत नई चुनौतियों से गुजर रहा है। विदेश और आर्थिक, दोनों मोर्चों पर हालात तेजी से करवट ले रहे हैं। ऐसे में और भी अहम हो जाता है कि संसद में इस पर सार्थक चर्चा होती और वाद-विवाद से रास्ता निकाला जाता। बिहार में वोटर लिस्ट रिवीजन-एसआईआर और ऑपरेशन सिंदूर पर कई सवाल बचे रह गए। प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री एवं अन्य मंत्रियों के सजा की स्थिति-यानी जेल में होने पर पद से हटाने वाले संविधान संशोधन विधेयक जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे पर जिस गंभीरता की जरूरत थी, वह नहीं दिखी।

संसद में हंगामे की प्रवृत्ति में केवल विपक्ष ही नहीं बल्कि सत्ता पक्ष भी अक्सर इसमें बराबर का भागीदार होता है। जब कोई दल विपक्ष में होता है तो वह विरोध के लिए हरसंभव कदम उठाता है, और जब वही दल सत्ता में आता है तो संसद की गरिमा की दुहाई देने लगता है। यह दोहरा रवैया लोकतंत्र को कमजोर करता है। संसद को सुचारुरूप से चलाना केवल सरकार की ही नहीं, बल्कि विपक्ष की भी जिम्मेदारी है। दोनों पक्षों को यह समझना होगा कि वे जनता के सेवक हैं, और जनता उनके कामकाज पर पैनी नजर रखती है। संसद में अनुशासन और मर्यादा बनाए रखने के लिए कठोर नियमों की आवश्यकता है। यदि कोई सांसद बार-बार हंगामा करता है, सदन की कार्यवाही बाधित करता है, तो उसके खिलाफ दंडात्मक कार्रवाई होनी चाहिए। आर्थिक दंड एक प्रभावी उपाय हो सकता है। जिस प्रकार एक कर्मचारी को कार्यालय में अनुशासन भंग करने पर वेतन काटा जाता है, उसी प्रकार सांसद का भत्ता और सुविधाएं भी रोकी जानी चाहिए। तभी उन्हें यह समझ आएगा कि संसद खेल का मैदान नहीं बल्कि देशहित का पवित्र मंच है।

कई बार सांसद यह तर्क देते हैं कि यदि उनकी आवाज संसद में नहीं सुनी जाती तो वे मजबूर होकर हंगामा करते हैं। लेकिन यह तर्क स्वीकार्य नहीं है। संसद में बोलने के लिए पर्याप्त अवसर मिलते हैं, शून्यकाल, प्रश्नकाल, विशेष उल्लेख, स्थायी समितियाँ-ये सभी मंच सांसदों को मुद्दे उठाने का अवसर देते हैं। यदि इन मंचों का सही उपयोग हो तो हंगामे की कोई आवश्यकता नहीं रहती। सड़क की राजनीति और संसद की राजनीति में अंतर होना चाहिए। यदि संसद भी सड़क जैसी दिखने लगे तो लोकतंत्र की पवित्रता पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है। अब समय आ गया है कि जनता अपने सांसदों से सवाल पूछे। मतदाता केवल जाति, धर्म या दल देखकर वोट न दें, बल्कि यह भी देखें कि उनका प्रतिनिधि संसद में कितना समय उपस्थित रहता है, कितनी बार बोलता है, कितने प्रश्न पूछता है और कितनी गंभीरता से बहस में भाग लेता है। चुनाव आयोग और मीडिया को भी यह आँकड़े मतदाताओं तक पहुँचाने चाहिए। जब मतदाता यह तय करने लगेंगे कि उनका वोट केवल उन नेताओं को जाएगा जो संसद में गंभीरता से काम करते हैं, तभी यह प्रवृत्ति बदलेगी।

लोकतंत्र की सफलता केवल संविधान या संस्थाओं से नहीं, बल्कि उन लोगों से होती है जो उन्हें संचालित करते हैं। यदि सांसद ही अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाएँगे तो लोकतंत्र खोखला हो जाएगा। आज आवश्यकता है कि सभी राजनीतिक दल एक साथ बैठकर यह संकल्प लें कि चाहे सत्ता में हों या विपक्ष में, वे संसद की गरिमा को आंच नहीं आने देंगे। असहमति और संघर्ष लोकतंत्र का हिस्सा हैं, परंतु वह असहमति तर्क और संवाद से होनी चाहिए, हंगामे और अव्यवस्था से नहीं। संसद में हंगामे की प्रवृत्ति लोकतंत्र की आत्मा पर प्रहार है। यह जनता की गाढ़ी कमाई की बरबादी है और उनकी उम्मीदों का अपमान भी। यह संसाधनों की बर्बादी एवं जनविश्वास का हनन है। चिंताजनक बात यह है कि संसदीय कार्यवाही का ऐसा अंजाम अब आम हो चुका है। पिछले शीत सत्र में ही लोकसभा के 65 से ज्यादा घंटे बर्बाद हुए थे। संसद सत्र को चलाने में हर मिनट ढाई लाख रुपये से ज्यादा खर्च होते हैं। ऐसे में सदन जब काम नहीं करता, तो जनता की गाढ़ी कमाई के इन रुपयों के साथ देश का बेहद कीमती समय भी जाया हो जाता है। संसद में केवल वही बहसें होनी चाहिए जो देश के भविष्य को दिशा दें, समस्याओं का समाधान निकालें और नीतियों को प्रभावी बनाएँ। यदि संसद ही शोरगुल और हंगामे का अखाड़ा बन जाए तो लोकतंत्र का उद्देश्य ही विफल हो जाएगा। विरोध भी जरूरी है, पर मुद्दों पर और सकारात्मक उद्देश्य के साथ।

– ललित गर्ग

लेखक, पत्रकार, स्तंभकार

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button