राजनीति
'एचआईवी’ मरीजों की सुविधा रोकना, अमानवीय?

‘दक्षिण अफ्रीका’ ऐसा मुल्क है जहां ‘एचआईवी’ मरीजों की संख्या सर्वाधिक है। मोटे तौर पर तकरीबन ढ़ाई लाख से ज्यादा लोग संक्रमित हैं। दक्षिण अफ्रीका के सामने एचआईवी पर नियंत्रण के लिए मात्र जरिया ‘मुफ्त अमेरिकी चिकित्सा सुविधा’ मानी जाती रही है? जिसे पिछले सप्ताह अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप द्वारा बंद करके का ऐलान कर दिया गया। बंदी के निर्णय के कुछ घंटों बाद ही सुविधाएं भी रोक दी गईं। इससे निश्चित रूप से एचआईवी संक्रमितों के सामने बड़ी मुसीबत खड़ी होगी? होगी क्या, हो ही गई? सभी जानते हैं कि दक्षिण अफ्रीका में एचआईवी संक्रमितों के लिए अमेरिका की मुफ्त चिकित्सा सुविधा वर्षों से जारी थीं। सुविधा बंद करके अमेरिका ने अमानवीय चेहरे से परिचय कराकर दुनिया में थू-थू भी करा ली है। अमेरिकी राष्टृपति को कोई ये बात समझाए कि इंसानी जीवन से बढ़कर कोई दौलत, कोई शौहरत नहीं होती? किसी भी राष्ट्राध्यक्ष को मरीजों के जीवन से साथ ऐसा खिलवाड़ नहीं करना चाहिए। जीवन बचाने के लिए नफे-नुकासान की परवाह तो कतई नहीं करनी चाहिए।
चिकित्सा सहायता रूकने से एक साथ 2 लाख 22 हजार एड्स संक्रमितों के जीवन को नर्क में धकेला गया है। डोनाल्ड ट्रंप विभिन्न देशों पर अनाप-शनाप टैरिफ लगाना, बिलावजह की वंदिशें और कई वस्तुओं पर प्रतिबंध लगाने जैसे उंटपटांग निर्णयों को लेकर पहले से दुनिया के निशाने पर हैं। इसी बीच दक्षिण अफ्रीका में एचआईवी पीड़ितों को मुफ्त एचआईवी सेवाएं बंद करके सोचने पर मजबूर कर दिया है। ट्रंप के निर्णयों ने पूरी दुनिया में वैसे ही उथलपुथल मचाई हुई है। इस कड़ी में उन्होंने अफ्रीका के लाखों मरीजों का भी जीवन संकट में डाल दिया है। दक्षिण अफ्रीका सरकार भी हैरान है कि आखिर अमेंरिका ने ऐसा अमानवीय कदम उठाया क्यों? ट्रंप के फैसले के बाद मरीज एचआईवी सुविधा केंद्रों पर दौड़े, लेकिन बिना दवाईयों के उन्हें मायूस होकर लौटना पड़ा। दक्षिण अफ्रीका में एड़स पीड़ितों का अधिकृत आंकड़ा जितना है उससे कहीं ज्यादा अनाधिकृत है। मुफ्त सुविधाएं रूकने के बाद गुप्त मरीजों की संख्याओं को देखकर सरकार भी हैरत में है।
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मुफ्त सुविधाएं क्यों रोकी गईं? इस गणित को समझना भी जरूर है। दरअसल, एचआईवी दवाओं की लागत दवा के प्रकार, भौगोलिक स्थिति और दवा कंपनियों द्वारा प्रदान की जाने वाली सहायता के आधार पर भिन्न होती हैं। खरीद में एचआईवी की दवाईयां काफी महंगी पड़ती हैं। कीमतें विभिन्न देशों में अलग-अलग रहती हैं। जगहों के आधार पर दवाइयों में बदलाव भी होता है। भारत में, एचआईवी के लिए ‘एंटीरेटृवाइल थेरेपी’ और ‘एपरेटयूड इनजेक्शन’ के अलावा ‘ग्लाइड’ इस्तेमाल की जाती है जिसके प्रत्येक बॉक्स की कीमत 23 हजार और 15 हजार होती है। बाकी अन्य देश ‘टेनोफोविर’, ‘लेमिवाउडिन’, ‘डोल्यूटेग्राविर’ भी प्रयोग करते हैं। इसके अलावा एचआईवी संक्रमित पर ‘न्यूक्लियोसाइड रिवर्स ट्रांसक्रिपटेस इनहिबिटर प्रोटीएस भी उपयोग होते हैं। ये सभी दवाइयां निजी स्तर पर महंगी होती हैं। बिना सरकारी सहायता के कोई आसानी से नहीं खरीद सकता। ज्यादातर देश अपने मरीजों को सब्सिडी देकर कम दामों में मुहैया करवाते हैं। भारत में भी ये दवाईयां बिल्कुल फ्री नहीं हैं। इन सभी तथ्यों को ध्यान में रखकर अमेरिका ने यह फैसला लिया।
दक्षिण अफ्रीका में मुफत दवाई वितरण में अमेरिका को सालाना करोड़ों रूपए का नुकसान हो रहा था। अमेरिका सालों से अफ्रीकी लोगों को एचआईवी ग्रस्तों को मुफ्त चिकित्सा मुहैया करवाता आया था। पर, अब उसे घाटे का सौदा दिखने लगा? इसलिए मरीजों की जान की परवाह किए बिना ये गैरजरूरी निर्णय ले लिया। जबकि, उसे पता है कि एचआईवी पीड़ितों की सर्वाधिक संख्या इस समय दक्षिण अफ्रीका में है। अमेरिका शुरू से कहता आया था कि अफ्रीकी लोग संसार के दूसरे देशों में पहुंचते हैं तो वहां भी संक्रमण फैलाते हैं। ऐसा न हो, उसके लिए वह अपने स्तर से वहां फैले एचआईवी को नितंत्रण करने के लिए पीड़ितों का ईलाज करते थे। लेकिन, विगत सप्ताह अचानक निःशुल्क चिकित्सा सहायता पर विराम लगा दिया। जबकि, इस बात का ध्यान रखना चाहिए था कि ऐसा करने से एचआईवी संक्रमितों के जीवन पर बात बन आई है। एड्स के डर से मर-मर कर अपना जीवन जीने वाले मरीज इस सदमे कैसे बर्दाश्त कर पाएंगे। अमेरिका की इस हरकत ने मानवीय पहलूओं का भी अनादर किया है। बंदी के निर्णय के बाद मरीज लगातार क्लीनिकों की ओर दौड़ रहे हैं, भगदड़ जैसी स्थिति बनीं हुई है।
हैरान करने वाली बात ये है कि अमेरिका ने निर्णय अचानक लिया, अफ्रीकी सरकार को सूचित भी नहीं किया। 16 क्लीनिकों में 12 क्लीनिक बंद कर दिए जिनमें 63,000 से ज्यादा मरीज प्रभावित हुए हैं। शेष बचे 4 क्लीनिकों में भी जीवनरक्षक दवाईयां पहुंचनी बंद हो गईं हैं। इस बात का वैश्विक स्तर पर जमकर विरोध भी हो रहा है। अमेरिका पर पुर्नविचार की मांग उठ रही है। इतना तय है, अगर मदद जल्द बहाल नहीं हुई, तो न सिर्फ दक्षिण अफ्रीका में लाखों एचआइवी पीड़ितों की संख्या बढ़ेगी, बल्कि हजारों मौतें भी होनी आरंभ हो जाएंगी। ‘गिलियड’ एचआईवी पर नियंत्रण करने वाली प्रमुख दवाई मानी जाती है। गिलियड फार्मा कंपनी ने पिछले अक्टूबर-2024 में विश्व की 6 प्रमुख फार्मा कंपनियों के साथ समझौता किया था ताकि गरीब 120 देशों में ये दवा कम कीमत पर उपलब्ध हो। लेकिन कम कीमत के नाम पर ज्यादातर फार्मा कंपनियों ने अपने हाथ पीछे खींच लिए।
बहरहाल, संक्रमितों के बचे-खुचे जीवन को बचाने के लिए दक्षिण अफ्रीकी सरकार को प्रतिबद्ध होना होगा। रोकी गई सुविधाओं की भरपाई का विकल्प खोजना होगा। सुखद खबर ये है कि फिलहाल, अमेरिका ने कुछ आवश्यक जीवनरक्षक सेवाओं को सीमित स्तर पर शुरू करने का आश्वासन दिया है। लेकिन संकट फिर भी बरकरार है, टला नहीं? क्योंकि अमेरिकी हुकूमत पर फिलहाल विश्वास नहीं किया जा सकता। दक्षिण अफ्रीका ने भारत जैसे अन्य देशों से भी मदद की गुहार लगाई है। पर, इस सच्चाई से सभी वाकिफ हैं कि एचआईवी निरोधक दवाइयों पर जो सफलता अमेरिका ने पाई है, वैसी किसी दूसरे देश ने नहीं? उनके पास इकाइयों का अच्छा बैकअप है। अफ्रीका को फ्री में शायद ही कोई देश दवाई देने पर राजी हो? इसलिए अफ्रीकी सरकार को अपने बजट में इजाफा कर एचआईवी पीड़ितों के लिए धन आवंटित करना चाहिए, ताकि विदेशों से दवाईंयां खरीदी जा सकें। एचआईवी संक्रमण न फैले, इसके लिए जागरूकता अभियान भी छेड़े जाने की जरूरत है।
– डॉ. रमेश ठाकुर
सदस्य, राष्ट्रीय जन सहयोग एवं बाल विकास संस्थान (NIPCCD), भारत सरकार!