राजनीति

पंजाबी अखबारों की राय: पंजाब में तेजी से बिगड़ रही कानून-व्यवस्था

पंजाब में तेजी से बिगड़ती कानून-व्यवस्था, महाराष्ट्र में उद्धव और राज ठाकरे का गठबंधन और बिहार में चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूचियों के पुनरीक्षण और उस पर सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों पर इस हफ्ते पंजाबी अखबारों ने अपनी राय प्रमुखता से रखी है।
सूबे की कानून व्यवस्था पर चंडीगढ़ से प्रकाशित पंजाबी ट्रिब्यून अपने संपादकीय ”पंजाब में बढ़ता अपराध” में  लिखता है- अबोहर के व्यापारी संजय वर्मा की दिनदहाड़े हत्या और मोगा के एक क्लीनिक में अभिनेत्री तानिया के पिता की गोली मारकर हत्या ने एक तरह से यह उजागर कर दिया है कि किस तरह संगठित अपराध राज्य में आपराधिक गतिविधियों को आसानी से अंजाम दे रहा है। अखबार लिखता है शिक्षित युवाओं में बेरोज़गारी, नशे की लत व जल्दी पैसे कमाने का लालच कई पंजाबी युवाओं को अपराध की ओर धकेल रहा है। सोशल मीडिया पर दुष्प्रचार और गैंगस्टरों का महिमामंडन आग में घी डालने का काम कर रहा है। पंजाब में आपराधिक-आतंकवादी गठजोड़ अब स्थानीय नहीं रहा; यह अंतर्राष्ट्रीय, तकनीकी रूप से सक्षम और वैचारिक रूप से अस्थिर हो गया है। यह संकट जितना लंबा चलेगा, पंजाब के भविष्य को पटरी पर लाना उतना ही मुश्किल होता जाएगा।
 

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जालंधर से प्रकाशित ‘पंजाबी जागरण’ लिखता है- पंजाब पिछले कुछ समय से आपराधिक गतिविधियों में बढ़ोतरी के कारण सुर्खियों में है। अबोहर में हुई एक घटना ने पूरे राज्य में सनसनी फैला दी है। लॉरेंस बिश्नोई गिरोह से जुड़े एक समूह ने सोशल मीडिया पर एक पोस्ट के ज़रिए इस घटना की जिम्मेदारी ली है। ऐसा नहीं है कि राज्य में इस तरह की यह पहली घटना है। यह घटना आम बात है। अबोहर की घटना ने पंजाब में जबरन वसूली के बढ़ते मामलों पर भी प्रकाश डाला है।
जालंधर से प्रकाशित अजीत लिखता है— आजकल पूरे राज्य में लूटपाट का बोलबाला है। अबोहर की घटना के बाद सरकार एक बार फिर विपक्षी दलों के निशाने पर आ गई है। विपक्ष खासकर कांग्रेस ने मुख्यमंत्री से विधानसभा में कानून व्यवस्था के मुद्दे पर विशेष बहस की मांग की है।
जालंधर से प्रकाशित रोजाना पंजाब टाइम्स लिखता है— वर्ष 2023-24 की रिपोर्टों के अनुसार, पंजाब में जबरन वसूली और धमकियों से जुड़े मामलों में वृद्धि देखी गई है। पंजाब पुलिस के आंकड़ों के अनुसार, जून 2022 से फरवरी 2023 तक जबरन वसूली और धमकी के 278 मामले दर्ज किए गए, जो मार्च 2023 से दिसंबर 2023 तक बढ़कर 307 हो गए। यह वृद्धि समाज और पुलिस प्रशासन के लिए एक बड़ी चुनौती पेश कर रही है। अखबार लिखता है, सिद्धू मूसेवाला की हत्या ने संगठित अपराध की गंभीरता को उजागर किया, लेकिन इसके ख़िलाफ़ कोई बड़ी कार्रवाई नहीं हुई। जबरन वसूली की घटनाओं ने पंजाब के व्यापारियों और छोटे उद्योगपतियों में भय का माहौल पैदा कर दिया है। कई व्यापारी और कलाकार धमकियों के कारण अपना व्यवसाय या पेशा छोड़ने की सोच रहे हैं। इसका राज्य की अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।
चंडीगढ़ से प्रकाशित रोजाना स्पोक्समैन लिखता है, इस साल अब तक चंडीगढ़ में हत्या के 15 मामले दर्ज किए गए हैं। आंकड़े बताते हैं कि तेजी से हो रहे शहरीकरण, अन्य कारकों के साथ-साथ उत्तर प्रदेश और बिहार से पंजाब और चंडीगढ़ की ओर युवा पीढ़ी के बढ़ते पलायन के कारण भी गंभीर और घातक अपराधों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। जिन व्यवसायों में स्थानीय लोगों की विशेषज्ञता है, उनमें बाहरी लोगों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने जैसी मांगें राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर उठने लगी हैं। पंजाब और चंडीगढ़ को भी अब इस दिशा में कुछ सार्थक कदम उठाने की ज़रूरत है।
बिहार में चुनाव आयोग द्वारा मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण और इस बाबत सुप्रीम कोर्ट के हालिया निर्देशों पर चंडीगढ़ से प्रकाशित ‘पंजाबी ट्रिब्यून’ लिखता है- सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को बिहार में मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर को जारी रखने की अनुमति दे दी है, लेकिन साथ ही उसने चुनाव आयोग से एक बहुत ही प्रासंगिक प्रश्न पूछा है: अभी क्यों? अदालत ने यह बिल्कुल सही बात कही है कि विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले इस तरह की कवायद से लोगों के मन में संदेह पैदा होना स्वाभाविक है। सुप्रीम कोर्ट ने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया है कि इस प्रक्रिया में आधार कार्ड पर विचार क्यों नहीं किया जा रहा है। उसका मानना है कि चुनाव अधिकारियों को आधार कार्ड, मतदाता पहचान पत्र और राशन कार्ड पर विचार करना चाहिए। चंडीगढ़ से प्रकाशित ‘देशसेवक’ लिखता है-  छोटी-मोटी बाधाओं के बावजूद, चुनाव आयोग ने न केवल देश में, बल्कि दुनिया में भी सम्मान अर्जित किया है। बिहार चुनावों में चुनाव आयोग के सामने अपनी ईमानदारी बचाने की चुनौती है।
जालंधर से प्रकाशित ‘अज दी आवाज’ लिखता है— बिहार में इस साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार चुनाव जीतने के लिए हर हथकंडा अपना रहे हैं। बिहार में कानून-व्यवस्था की स्थिति ठीक नहीं है। रसूखदारों और कारोबारियों की हत्याओं की घटनाओं ने राज्य सरकार की छवि को गहरा धक्का पहुंचाया है। युवा बेरोजगार हैं और आम जनता महंगाई की मार झेल रही है। ऐसे में नीतीश कुमार ने भी अन्य राजनेताओं की तरह चुनाव के दौरान जनता को लुभाने के लिए बड़े-बड़े ऐलान किए हैं। अखबार आगे लिखता है, बिहार सरकार द्वारा कल्याणकारी योजनाओं की शुरुआत के लिए चुना गया समय उसकी ईमानदारी पर सवाल उठा रहा है। अगर सरकार वाकई लोगों की समस्याओं के प्रति गंभीर और सजग होती, तो ये घोषणाएं एक-दो साल पहले ही की जा सकती थीं। यह तो समय ही बताएगा कि सरकार के अंतिम दिनों में मतदाताओं को लुभाने के लिए की गई घोषणाएं कारगर साबित होती हैं या नहीं।
महाराष्ट्र में उद्धव और राज ठाकरे के गठबंधन पर  जालंधर से प्रकाशित ‘अज दी आवाज’ लिखता है-  मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व वाली महाराष्ट्र सरकार द्वारा राज्य में हिंदी को तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाने के फैसले ने दोनों चचेरे भाइयों, उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे को करीब आने का अवसर दिया। ऐसा लगता है मानो दोनों नेता साथ आने के मौके का इंतज़ार कर रहे थे। फिलहाल, ये दोनों पार्टियां अपना अस्तित्व बचाए रखने के लिए संघर्ष कर रही हैं। ठाकरे भाइयों का तात्कालिक लक्ष्य प्रतिष्ठित मुंबई नगर निगम में पैर जमाना है। महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ गठबंधन महायुति और विपक्षी एमवीए दोनों ही आंतरिक मतभेदों से घिरे हुए हैं। राज्य में स्थानीय निकाय चुनावों के मद्देनजर, आगामी समय में महाराष्ट्र की राजनीति में और अधिक उतार-चढ़ाव देखने को मिलेंगे और उनका प्रदर्शन राजनीति में उनका भविष्य भी तय करेगा। इसके अलावा एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्या ये दोनों स्थानीय चुनाव अकेले लड़ेंगे या एमवीए के सहयोगी कांग्रेस और शरद पवार के साथ मिलकर लड़ेंगे।
 

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चंडीगढ़ से प्रकाशित ‘पंजाबी ट्रिब्यून’ लिखता है— शिवसेना के एक धड़े के प्रमुख उद्धव ठाकरे और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के प्रमुख राज ठाकरे द्वारा हताशा में अपनाया गया यह अंतिम उपाय है। शिवसेना संस्थापक बालासाहेब ठाकरे के बेटे उद्धव और भतीजे राज ठाकरे अपनी राजनीतिक किस्मत चमकाने के लिए ‘मराठी मानुष’ कार्ड पर भरोसा कर रहे हैं। वे भाजपा पर किसी न किसी बहाने महाराष्ट्र के लोगों को बांटने का आरोप लगा रहे हैं; हालांकि, उनकी लड़ाई केवल भगवा पार्टी के खिलाफ ही नहीं है, बल्कि उपमुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे के नेतृत्व वाली ‘आधिकारिक’ शिवसेना के खिलाफ भी है। ठाकरे बंधुओं के पुनर्मिलन का मतलब है कि शिंदे अब मराठी वोट को हल्के में नहीं ले सकते।  
 
 -डॉ. आशीष वशिष्ठ  (स्वतंत्र पत्रकार)  

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