राजनीति

क्या पीएम नरेंद्र मोदी के सितंबर अमेरिकी दौरा से आपसी रिश्तों में जमी बर्फ कुछ पिघलेगी? समझिए…

चाहे अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप हों, या अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेन्स, दोनों भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को “टफ नेगोशिएटर” यानी “कठोर वार्ताकार” बताते आए  हैं। इसका अभिप्राय एक ऐसे व्यक्ति से होता है जो बातचीत में आसानी से हार नहीं मानता, अपनी बात पर दृढ़ रहता है और समझौते पर पहुंचने के लिए आसानी से झुकता नहीं है। जब-जब मैं उन दोनों नेताओं के मुख से टंप नेगोशिएटर शब्द सुनता हूँ तो महसूस करता हूँ कि आखिर इन अमेरिकियों के मन में चल क्या रहा है? 
लेकिन अब उन बातों का जवाब मिल चुका है। वह यह कि अमेरिका को चीन के मुकाबले एक मजबूत भारत नहीं, बल्कि पिछलग्गू भारत की जरूरत है। वहीं, भारत विरोधी पाकिस्तान व बांग्लादेश को पुनः भड़काकर अमेरिकी नेताओं ने मित्रता की आड़ में जो शत्रुतापूर्ण चालें चलीं हैं, उसके भी सही जवाब का उन्हें इंतजार करना होगा, क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी आजतक किसी के चतुराई भरे व्यवहार या दुर्व्यवहार को कभी भूलते नहीं हैं और उचित वक्त आने पर सूद समेत ऐसा वापस करते हैं, जिसे दिग्गज नेता व उद्योगपति ज्यादा समझते हैं। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह अच्छा लग रहा है या बुरा। 
दरअसल, यह बात मैं इसलिए कर रहा हूँ कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आगामी सितंबर माह में संयुक्त राष्ट्र महासभा के एक उच्च स्तरीय सत्र को संबोधित करने के लिए मित्र से शत्रु बनते जा रहे देश अमेरिका का अहम दौरा कर सकते हैं। पीएम नरेंद्र मोदी की संभावित अमेरिका यात्रा इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह एक ऐसे समय में हो रही है जब हाल के महीनों में भारत और अमेरिका के बीच संबंध प्रभावित हुए हैं। पहले इन सम्बन्धों पर रूस-यूक्रेन की वक्र दृष्टि पड़ी और फिर भारत-पाक सीमित संघर्ष और इजरायल-ईरान युद्ध की। भारत-चीन की आंखमिचौली की बात अलग है।

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गौरतलब है ऐसा कि ऑपरेशन सिंदूर के दौरान जब ट्रंप ने भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध विराम कराने का दावा किया तो नई दिल्ली ने उनके इस दावे का खंडन कर दिया। वहीं रूस-चीन से सीधी शत्रुता मोल नहीं ली। वहीं, गुटनिरपेक्ष भारत ने ग्लोबल साउथ को जो नेतृत्व दिया उससे भी विकसित देश चिढ़े हुए हैं। लिहाजा, सुलगता हुआ सवाल है कि क्या पीएम नरेंद्र मोदी के संभावित सितंबर अमेरिकी दौरा से आपसी रिश्तों में जमी बर्फ कुछ पिघलेगी? यदि हां तो फिर क्या इसके मायने दोनों पक्षों के लिए हितकारी साबित होंगे?
उससे भी बड़ा सवाल यह है कि आखिर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप अपने नवोदित पार्टनर भारत और पीएम मोदी के पीछे हाथ धोकर क्यों पड़े हुए हैं? आखिर वो क्या वजह है कि अमेरिका, अपने वैश्विक प्रतिस्पर्धी चीन का घोर विरोधी होने के बावजूद भी उसे अब नजरअंदाज कर रहा है, जबकि पहले सीधे टारगेट पर लिया करता था? यक्ष प्रश्न है कि भारत का नया करीबी पार्टनर होने के बावजूद अमेरिका उसे आंख पर आंख क्यों दिखाता जा रहा है! क्या भारत के साथ जारी टैरिफ युद्ध सिर्फ व्यापार तक सीमित है या फिर इसका अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक एजेंडा कुछ और है? 
इस लिहाज से प्रासंगिक सवाल है कि क्या ट्रंप सरकार भारत के साथ अपने संबंधों में तनाव बढ़ाकर एक बड़ी वैश्विक भूल कर रही है? या फिर यूरोपीय संघ के देशों, पाकिस्तान और चीन को पुनः पटाने के लिए वह अपने पुराने ढर्रे पर जा रहा है? समझा जाता है कि इन सभी सवालों के उत्तर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सितंबर अमेरिका यात्रा से मिल सकती है। क्योंकि उन्हें 21 वीं सदी का एशियाई बिस्मार्क समझा जाता है। यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेन्सकी के मुताबिक, यहीं पर उनकी मुलाकात प्रधानमंत्री मोदी से होगी, जैसा कि पीएम मोदी ने उन्हें आश्वस्त किया है।
समझा जाता है कि भारतीय विदेश नीति की परिपक्वता से ‘खूनी कारोबारी’ के रूप में मशहूर अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के युद्धोन्मादी एशियाई सपने धरे के धरे रह गए हैं। इसलिए ट्रंप बौखलाए हुए हैं। तभी तो उन्होंने पिछले महीने भारतीय वस्तुओं पर 25 प्रतिशत पारस्परिक टैरिफ लगाया। इसके साथ ही रूसी तेल के आयात पर 25 फीसदी अतिरिक्त जुर्माना टैरिफ लगाकर इसे बढ़ाकर 50 प्रतिशत कर दिया। जबकि भारत सरकार ने कहा है कि टैरिफ के मुद्दे पर दोनों देशों की ओर से कई मुद्दों/मोर्चों पर बातचीत चल रही है। लिहाजा, मोदी के अमेरिका दौरे का मुख्य उद्देश्य ट्रंप से व्यापार मुद्दों पर चर्चा करना और टैरिफ समझौता करना हो सकता है। 
यह भी अजीबोगरीब बात है कि भारत के प्रमुख प्रतिद्वंद्वी देश अमेरिका-चीन की यात्रा प्रधानमंत्री मोदी इसी अगस्त/सितंबर माह में करने वाले हैं, जो उनका जन्म माह भी है। इसलिए करिश्माई परिणाम की उम्मीद रखी जा सकती है। वहीं, मित्र देश रूस के राष्ट्रपति नवंबर-दिसंबर में भारत आएंगे। जबकि भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर 21 अगस्त को रूस में अपने समकक्ष से कूटनीतिक व रणनीतिक साझेदारी बढ़ाने की बात करेंगे। वहीं, अक्टूबर में क्वाड सम्मेलन में अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंफ के भी भारत आने का कार्यक्रम है, लेकिन उनके बदलते वैश्विक रूख के चलते यह मामला आगे बढ़ेगा या खटाई में पड़ेगा, गुज़श्ता वक्त बताएगा।
उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र महासभा (यूएनजीए) का 80वां सत्र 9 सितंबर को शुरू होगा। जिसके बाद उच्च स्तरीय सामान्य बहस 23-29 सितंबर तक चलेगी, जिसमें ब्राजील सत्र का पारंपरिक पहला वक्ता होगा, उसके बाद अमेरिका होगा। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप 23 सितंबर को प्रतिष्ठित यूएनजीए मंच से विश्व के नेताओं को संबोधित करेंगे। यह व्हाइट हाउस में उनके दूसरे कार्यकाल में संयुक्त राष्ट्र सत्र में उनका पहला संबोधन होगा। जबकि, भारत के शासन प्रमुख पीएम नरेंद्र मोदी 26 सितंबर की सुबह सत्र को संबोधित करेंगे। 
बताया जाता है कि इसी दिन इजरायल, चीन, पाकिस्तान और बांग्लादेश के राष्ट्राध्यक्ष यानी पीएम और राष्ट्रपति का भी यूएनजीए की आम बहस को संबोधित करने का कार्यक्रम है। ततपश्चात इसका समापन 29 सितंबर को होगा। बता दें कि यह वार्षिक बैठक वैश्विक चुनौतियों का समाधान करने और समाधानों पर सहयोग करने के लिए संयुक्त राष्ट्र के सभी 193 सदस्य देशों के नेताओं को एक साथ लाती है।
बताया जाता है कि इसी अमेरिकी यात्रा के दौरान उनकी अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेन्सकी से मुलाकात की संभावना है, जिसके बाद दोनों देशों के नेताओं के बीच अलग-अलग समयों पर व्यापार मुद्दों और युद्व रोकवाने पर बातचीत हो सकती है। इस बातचीत में अमेरिकी टैरिफ को लेकर पारस्परिक सहमति बनाने पर भी जोर रहेगा। बता दें कि नरेंद्र मोदी और डोनाल्ड ट्रंप की आखिरी मुलाकात फरवरी 2025 में हुई थी जब भारतीय प्रधानमंत्री अमेरिका गए थे। रिपोर्टों के अनुसार, पीएम मोदी की यात्रा की तैयारियां चल रही हैं और अगस्त के अंत तक इसे अंतिम रूप दिया जा सकता है।
गौरतलब है कि अपनी पिछली द्विपक्षीय बैठक के बाद जारी एक संयुक्त बयान में, पीएम मोदी और ट्रंप ने 2025 के अंत तक पारस्परिक रूप से दोनों के लिए फायदेमंद, बहु-क्षेत्र द्विपक्षीय व्यापार समझौते (बीटीए) की पहली किश्त पर बातचीत करने की योजना की घोषणा की थी। लेकिन व्यापार वार्ता के बीच ही ट्रंप ने भारत पर कुल 50 प्रतिशत टैरिफ लगा दिया, जिसमें नई दिल्ली की रूसी तेल की खरीद के लिए 25 प्रतिशत भी शामिल था, जो 27 अगस्त से लागू होगा। वहीं, पिछले सप्ताह ट्रंप के कार्यकारी आदेश में 25 प्रतिशत अतिरिक्त टैरिफ लगाने की घोषणा ऐसे समय में हुई है जब अमेरिका और भारत के प्रस्तावित द्विपक्षीय व्यापार समझौते के लिए छठे दौर की वार्ता के लिए अमेरिका की एक टीम 25 अगस्त से भारत का दौरा करने वाली है। दोनों देश इस साल अक्टूबर-नवंबर तक समझौते के पहले चरण को समाप्त करने का लक्ष्य बना रहे हैं।
लिहाजा, इस टैरिफ पर प्रतिक्रिया देते हुए भारत के विदेश मंत्रालय ने कहा है कि उनके देश को निशाना बनाना अनुचित है। किसी भी प्रमुख अर्थव्यवस्था की तरह, भारत अपने राष्ट्रीय हितों और आर्थिक सुरक्षा की रक्षा के लिए सभी आवश्यक उपाय करेगा। दरअसल, भारत सरकार का कहना है कि हम इन मुद्दों पर पहले ही अमेरिका से अपना रुख स्पष्ट कर चुके हैं। इनमें यह तथ्य शामिल है कि हमारा आयात बाजार की परिस्थितियों पर आधारित है। इसका मकसद भारत की एक अरब 40 करोड़ आबादी की ऊर्जा सुरक्षा को सुनिश्चित करना है। 
यही वजह है कि भारत ने अमेरिका के इस टैरिफ सम्बन्धी फैसले को दुर्भाग्यपूर्ण और तर्कहीन करार दिया। पीएम नरेंद्र मोदी ने भी साफ-साफ कहा है कि टैरिफ के मसले पर भारत अपने हितों के साथ कतई समझौता नहीं करेगा। वहीं, भारत के अलावा चीन भी रूस का बड़ा व्यापारिक साझेदार है। चीन भारत के मुकाबले करीब दोगुना रूसी तेल का आयात करता है। फिर भी अमेरिका ने चीन को 90 दिनों की मोहलत दे दी है। लिहाजा, हम इसका भी कारण समझेंगे, लेकिन पहले समझते हैं टैरिफ के कारण भारत को क्या नुकसान उठाना पड़ सकता है।
ऐसे में सवाल है कि आखिर में भारत, अमेरिकी शर्तें क्यों नहीं मान रहा है? तो इसका स्पष्ट जवाब होगा कि ट्रम्प ने लंबे समय से भारत को “टैरिफ किंग” करार दिया है। अमेरिकी व्यापार प्रतिनिधि कार्यालय के अनुसार, 2024 में 45.8 अरब डॉलर के भारी अमेरिकी माल व्यापार घाटे का सबूत देते हैं, जिससे अर्थव्यवस्था से जुड़े संवेदनशील क्षेत्रों पर वार्ता बार-बार लड़खड़ा गई। ऐसा इसलिए कि भारत ने कृषि और डेयरी उत्पादों पर टैरिफ में कटौती करने से इनकार कर दिया है।
ऐसे में पूरक सवाल यह है कि क्या भारत से रिश्ते खराब करना ट्रंप के लिए बड़ी कूटनीतिक भूल साबित होगी? तो इसका जवाब यही होगा कि भारत के खिलाफ अमेरिकी कार्रवाई बिना सोचे-समझे लिया गया फैसला प्रतीत होता है। ट्रंफ इसके लिए बदनाम भी रहे हैं। इसलिए विशेषज्ञ बताते हैं कि इस टैरिफ बढ़ोतरी का एकमात्र उद्देश्य एक मनोनुकूल राजनीतिक एजेंडा सेट करना है, जो अंतरराष्ट्रीय पैमाने पर लड़खड़ाए अमेरिका की अब प्राथमिक ज़रूरत बन चुकी है। इसलिए आशंका है कि मौजूदा दंडात्मक शुल्क दोनों देशों के बीच विगत 25-30 वर्षों की कड़ी मेहनत से बनाए गए विश्वास और सहयोग को कहीं खतरे में नहीं डाल दें। 
यही वजह है कि ट्रंप के पुराने सहयोगी भी उनके इस फैसले से सहमत नहीं बताए जाते हैं। ट्रंप के एक पुराने सहयोगी ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कहा है कि वे ट्रंप के दवाब के आगे न झुकें। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के पूर्व सहयोगी जॉन बोल्टन ने भारत के साथ टैरिफ प्रकरण पर अमेरिकी सरकार की आलोचना करते हुए कहा है कि अमेरिका ने भारत को रूस और चीन से दूर करने के दशकों पहले से चले आ रहे प्रयासों को भी खतरे में डाल दिया है। पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ने भारत की तुलना में चीन के प्रति ट्रंप के पूर्वाग्रह की भी आलोचना की और कहा कि यह एक ‘बहुत बड़ी भूल’ साबित हो सकती है।
– कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक

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