राजनीति

why the uproar over the bill when the issue is of political purity

गंभीर आपराधिक आरोपों में घिरे नेता चाहे वे प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री एवं मंत्री ही क्यों न हो, उनकी गिरफ्तारी या हिरासत के बाद एक निश्चित अवधि बीत जाने पर हटाने की व्यवस्था वाले विधेयक को जब केन्द्र सरकार ने लोकसभा में प्रस्तुत किया तो जरूरत से ज्यादा हंगामा एवं विरोध समझ में नहीं आया। इस तरह ईमानदार, अपराधमुक्त राजनीति एवं चरित्रसम्पन्न-पवित्र राजनेताओं की पैरवी वाले विधेयक पर हंगामा लोकतंत्र की गरिमा को आहत करता है। गृहमंत्री अमित शाह ने सूझबूझ का परिचय देते हुए अपनी ओर से इन विधेयकों को संसद की संयुक्त समिति को भेजने का प्रस्ताव रखा, जिसे लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने स्वीकार भी कर लिया, अब तो विपक्ष को विरोध एवं हंगामें को विराम देते हुए इस पर विचार करना चाहिए कि आखिर ऐसी ईमानदार, समानतापूर्ण एवं आदर्श व्यवस्था क्यों नहीं बननी चाहिए, जिससे उच्च पदों पर बैठे नेताओं के गंभीर अपराधों में गिरफ्तारी अथवा हिरासत में लिये जाने पर उनके लिये पद छोड़ना आवश्यक हो जाये? आखिर इस आदर्श व्यवस्था में समस्या क्या है? क्यों विपक्ष नैतिक एवं आदर्श राजनीतिक व्यवस्था में अवरोधक बनकर अपने नैतिक चरित्र पर प्रश्न खड़े कर रहा है? क्या इस विधेयक का असर सत्तापक्ष के नेताओं पर नहीं होगा?

आजादी के बाद से कतितय राजनीतिक विसंगतियों के चलते राजनीति में अपराधी तत्वों का वर्चस्व बना रहा है। जनता यह अपेक्षा करती है कि जिन्हें वह अपना प्रतिनिधि चुनती है, वे अपराधमुक्त, निष्कलंक, ईमानदार और चरित्रवान हों। परन्तु स्थिति इसके विपरीत दिखती रही है। एक ओर जनप्रतिनिधि अपराधों में संलिप्त पाए जाते हैं, दूसरी ओर वे पद से इस्तीफा देने या सार्वजनिक जीवन से दूर रहने के बजाय सत्ता की कुर्सी से चिपके रहते हैं। यही प्रवृत्ति जनता के विश्वास को तोड़ती है और राजनीति को संदेह के घेरे में डाल देती है। यह प्रश्न अब और गंभीर हो उठा है कि क्या ऐसे व्यक्तियों को शासन और सत्ता के उच्च पदों पर बने रहने का अधिकार होना चाहिए? क्या लोकतंत्र का आधार अपराध और भ्रष्टाचार पर खड़ा किया जा सकता है? निश्चित ही नहीं। जब तक राजनीति से अपराधी तत्वों का निष्कासन नहीं होगा, तब तक न तो सुशासन स्थापित हो सकता है न ही नया भारत, विकसित भारत एवं आदर्श भारत बन सकता है और न ही राजनीति के प्रति जनता का भरोसा लौट सकता है।

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आज समय आ गया है कि नए कानून बनाकर राजनीति को अपराधमुक्त बनाने की दिशा में ठोस एवं कारगर कदम उठाए जाएं। यह केवल चुनाव सुधार का मामला नहीं है, बल्कि यह लोकतंत्र की आत्मा को बचाने का प्रश्न है। ऐसे प्रावधान होने चाहिए कि जिस क्षण कोई जनप्रतिनिधि गंभीर अपराध में आरोपित होकर जेल भेजा जाए या आरोप सिद्ध होने तक हिरासत में रहे, वह स्वचालित रूप से अपने पद से मुक्त हो जाए। इस्तीफे की प्रतीक्षा या राजनीतिक दबाव की आवश्यकता ही न रहे। अनेक नेताओं ने ऐसा आदर्श प्रस्तुत भी किया, लेकिन आम आदमी पार्टी, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा आदि अनेक पार्टियों के नेताओं ने जेल से सरकारें चलाने एवं मंत्री पद पर बने रहने के काले अध्याय रचे हैं, इसी के चलते इस नये विधेयक की अपेक्षा सामने आई।

भारत जैसे विशाल लोकतंत्र में स्वच्छ राजनीति केवल आदर्श नहीं, बल्कि अनिवार्यता है। जब सत्ता और शासन के केंद्र में अपराधी मानसिकता के लोग बैठते हैं, तो वे शासन को अपने स्वार्थ और अपराधों की ढाल बना लेते हैं। इससे न केवल लोकतांत्रिक व्यवस्था खोखली होती है, बल्कि आम जनता का जीवन भी संकट में पड़ता है। भ्रष्टाचार, धनबल, बाहुबल, भाई-भतीजावाद, हिंसा और अनैतिकता का वातावरण उसी समय पनपता है, जब राजनीति अपराधियों के कब्जे में जाती है। ईमानदार और स्वच्छ छवि वाले नेताओं की मांग आज पहले से अधिक बढ़ गई है। जनता ऐसे नेतृत्व की तलाश में है जो अपने आचरण से उदाहरण प्रस्तुत करे। राजनीति यदि सेवा और त्याग का माध्यम बनेगी तो ही समाज का कल्याण होगा। जिन नेताओं पर जरा भी संदेह का धुंधलका हो, उन्हें स्वयं स्वेच्छा से पद छोड़ देना चाहिए। यही परंपरा राजनीति को उच्चता और गरिमा प्रदान कर सकती है।

अपराधमुक्त राजनीति केवल नैतिक अपेक्षा नहीं, बल्कि लोकतंत्र की मजबूरी है। जब तक राजनीति में शुचिता और नैतिकता का स्थान नहीं बनेगा, तब तक सुशासन और ईमानदार प्रशासन की कल्पना अधूरी ही रहेगी। नए कानूनों का निर्माण कर अपराधियों के लिए राजनीति के दरवाजे बंद करना समय की सबसे बड़ी मांग है। यह कदम न केवल लोकतंत्र को सुदृढ़ करेगा, बल्कि जनता के भीतर यह विश्वास भी जगाएगा कि राजनीति वास्तव में लोककल्याण के लिए है, न कि अपराधियों की शरणस्थली। यही अपराधमुक्त राजनीति का दर्शन है, जहां सत्ता अपराधियों का आश्रय-स्थल न होकर समाज की नैतिक ऊर्जा का केंद्र बने। यही उसकी सबसे बड़ी उपयोगिता है कि वह लोकतंत्र को उसकी वास्तविक आत्मा लौटाए और राजनीति को सेवा, शुचिता और ईमानदारी का प्रतीक बनाए।

भारतीय लोकतंत्र में पिछले कुछ वर्षों से राजनीति और अपराध के गठजोड़ को लेकर गहरी चिंता लगातार उठती रही है। जनता बार-बार यह अपेक्षा करती है कि जिन्हें वे संसद और विधानसभा भेजते हैं, वे न केवल ईमानदार और पारदर्शी हों बल्कि उनके चरित्र और आचरण पर कोई दाग न हो। किंतु बार-बार यही देखने को मिलता है कि गंभीर आपराधिक मामलों में फंसे नेता भी उच्च पदों पर बने रहते हैं और शासन-सत्ता का उपयोग अपने बचाव के लिए करते हैं। इसी पृष्ठभूमि में केंद्र सरकार द्वारा संसद में पेश किया गया नया विधेयक (संविधान का 130वां संशोधन) एक ऐतिहासिक कदम माना जा सकता है, केन्द्र सरकार इन विधेयकों को भ्रष्टाचार एवं अपराध विरोध बता रही है, जबकि विपक्ष इससे सहमत नहीं। उनकी असहमति अनेक प्रश्नों को खड़ा कर रही है कि आखिर विपक्ष दागियों की वकालत करते हुए वह स्वयं भी दागी क्यों बन रही है? आशंका जताई जा रही है कि यदि यह संशोधन पारित हो गया तो विपक्ष-शासित राज्यों के मुख्यमंत्री और मंत्री अस्थिर हो सकते हैं, उनके पद संकट में पड़ सकते हैं। दरअसल यह विरोध केवल विधेयक का नहीं बल्कि अपनी राजनीतिक सुविधा, अपनी सत्ता बचाने और सुरक्षा का है। प्रश्न यह उठता है कि क्या विपक्ष वास्तव में अपराधमुक्त राजनीति नहीं चाहता? क्या केवल सत्ता में बने रहने के लिए राजनीति को अपराधियों का अड्डा बनाए रखना आवश्यक है?

विपक्ष का तर्क है कि सरकार इस विधेयक का दुरुपयोग कर सकती है, और केवल आरोप लगाकर भी नेताओं को पद से हटाया जा सकता है। लेकिन सच्चाई यह है कि लोकतंत्र में जब तक कानून कठोर और स्पष्ट नहीं होगा, तब तक राजनीति से अपराध का सफाया संभव नहीं है। यदि किसी निर्दोष व्यक्ति पर आरोप गलत सिद्ध होता है तो उसके लिए पुनः प्रतिष्ठा अर्जित करने के रास्ते खुले रहेंगे, परंतु गंभीर आरोपियों को शासन की कुर्सी पर बने रहने देना लोकतंत्र के साथ अन्याय है, उसकी मूल आत्मा को ध्वस्त करना है। ऐसा अरविन्द केजरीवाल ने पहली बार किया और जेल से ही सरकार चलाने का दम भरते रहे।

आज देश ‘विकसित भारत’ के संकल्प की ओर बढ़ रहा है। विकसित भारत का सपना केवल तकनीकी प्रगति या आर्थिक मजबूती से पूरा नहीं होगा, बल्कि इसके लिए स्वच्छ, ईमानदार और पारदर्शी राजनीति आवश्यक है। राजनीति में अपराधियों की घुसपैठ न केवल लोकतंत्र की नींव को कमजोर करती है बल्कि जनता के विश्वास को भी तोड़ती है। अपराधमुक्त राजनीति न केवल आदर्श है बल्कि सुशासन और विकास की बुनियादी शर्त है। इसलिए आवश्यक है कि ऐसे विधेयक का स्वागत किया जाए, क्योंकि यह राजनीति को शुचिता, नैतिकता और जनहित के मार्ग पर ले जाने का प्रयास है। राजनीति में एक नये सूरज का उदय है। विपक्ष यदि इसका विरोध करता है तो यह सवाल स्वतः उठता है कि क्यों विपक्ष अपराधमुक्त राजनीति का विरोध करके अपराधियों का संरक्षण कर रहा है? क्या उसे अपने ही दागी नेताओं के लिए भय है? लोकतंत्र को बचाने और मजबूत करने के लिए यह विधेयक समय की मांग है। नया भारत तभी विकसित भारत बनेगा जब उसकी राजनीति अपराधियों से मुक्ति होगी। अपराधमुक्त राजनीति से ही सुशासन आएगा, ईमानदार नेतृत्व पनपेगा और जनता के बीच विश्वास की नई रोशनी जगेगी। यही लोकतंत्र की असली जीत होगी।

– ललित गर्ग

लेखक, पत्रकार, स्तंभकार

(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)

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