राजनीति

उपराष्ट्रपति चुनाव को राष्ट्रवाद बनाम धर्मनिरपेक्षता की सियासी लड़ाई बनाने के रणनीतिक मायने

उपराष्ट्रपति पद के लिए अब एनडीए और इंडिया ब्लॉक दोनों तरफ से उम्मीदवारों का ऐलान हो चुका है। एनडीए ने जहां महाराष्ट्र के राज्यपाल सीपी राधाकृष्णन को अपना उम्मीदवार बनाया है, वहीं उनसे मुकाबले के लिए इंडिया ब्लॉक ने सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज बी. सुदर्शन रेड्डी को चुनाव मैदान में उतारा है। इस प्रकार एक तरफ जहां मोदी ने एनडीए उम्मीदवार की तारीफ करते हुए कहा है कि राधाकृष्णन सियासी खेल नहीं करते हैं, बल्कि सुलझे हुए राजनेता हैं। वहीं, दूसरी तरफ विपक्ष ने इंडिया ब्लॉक के उम्मीदवार रेड्डी को गैरराजनीतिक चेहरा बताते हुए कहा है कि मौजूदा चुनाव विचारधारा (संघ बनाम प्रगतिशील) की लड़ाई है। साधारण भाषा में कहें तो उपराष्ट्रपति चुनाव को भी राष्ट्रवाद बनाम धर्मनिरपेक्षता की सियासी लड़ाई का नया अखाड़ा बना दिया गया है, जिसके रणनीतिक मायने भी दिलचस्प हैं।
यूँ तो संख्या बल में एनडीए यानी सत्ता पक्ष का पलड़ा भारी है, लेकिन यह लड़ाई आंकड़ों से ज्यादा प्रतीकात्मक प्रतीत होता है। देखा जाए तो अपने-अपने सियासी अहम के सवाल पर विभाजित विपक्ष ने भी पुनः एकजुटता प्रदर्शित करते हुए एक मजबूत प्रत्याशी उतारकर सत्तापक्ष को यह संदेश देने का प्रयास किया है कि वह किसी मोर्चे पर सरकार को फ्री हैंड नहीं देने जा रहा है। उसके इस कदम से विपक्ष को फायदा हो या न हो, लेकिन एनडीए में शामिल दलों की पूछ परख बढ़ जाएगी। वहीं, किसी भी सहयोगी ने यदि थोड़ा सा घात कर दिया तो फिर सत्ता पक्ष की किरकिरी भी हो सकती है।

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यही वजह है कि मौजूदा उपराष्ट्रपति चुनाव के दृष्टिगत कतिपय सवाल खड़े हो रहे हैं- खासकर उम्मीदवार चयन को लेकर। सर्वप्रथम तो यह कि जिस तरह से दोनों केंद्रीय सियासी गठबंधनों ने अपने-अपने उम्मीदवार के नाम दक्षिण भारत से दिए हैं, उससे भी उत्तर भारत के राजनेता ठगे रह गए हैं। उल्लेखनीय है कि सर्वसम्मति से एनडीए कैंडिडेट बने राधाकृष्णन तमिलनाडु से आते हैं, जबकि सुदर्शन रेड्डी तेलंगाना (पुराने आंध्रप्रदेश) से। लिहाजा, दोनों चेहरों का दक्षिण भारत से होना महज सियासी संयोग नहीं हो सकता, बल्कि इसके पीछे दोनों प्रतिस्पर्धी राजनीतिक गठबंधनों की कोई सुनियोजित राजनीतिक योजना है और इसी वजह से यह चुनाव और भी अधिक दिलचस्प हो जाता है। 
दूसरा, विपक्षी दल एनडीए उम्मीदवार राधाकृष्णन और इंडिया ब्लॉक उम्मीदवार रेड्डी की लड़ाई को विचारधारा यानी धर्मनिरपेक्षता की लड़ाई बता रहे हैं। क्योंकि उनका कहना है कि जब एनडीए संघ के आदमी पर भरोसा कर रहा है तो वो एक प्रोग्रेसिव विचारधारा यानी धर्मनिरपेक्ष उम्मीदवार को सामने रख रहे हैं। जिस तरह से कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने गठबंधन के सभी दलों के प्रतिनिधियों के साथ मंच से एक संक्षिप्त से नोट पढ़कर इंडिया ब्लॉक के उपराष्ट्रपति उम्मीदवार रेड्डी के नाम का ऐलान किया, वह खासा अहम है। 
जैसा कि खरगे ने कहा है कि सभी दलों ने सर्वसम्मति से रेड्डी की उम्मीदवारी पर मुहर लगाई है। यह विपक्षी एकता के लिहाज से लोकतंत्र के लिए एक बड़ा क्षण है। लिहाजा, उन्होंने रेड्डी को राजनीतिक न्याय का चैंपियन करार दिया। जबकि मंच से ही टीएमसी के राज्यसभा सांसद डेरेक ओ ब्रायन ने कहा कि इस फैसले में आम आदमी पार्टी भी ब्लॉक के साथ है। बताया गया है कि इंडिया ब्लॉक के अंदर सभी दलों के साथ इस मसले पर गत सोमवार और मंगलवार सुबह अनौपचारिक बातचीत हुई थी। 
दरअसल, इस पूरी प्रक्रिया में चार-पांच नामों को लेकर सोमवार को चर्चा भी हुई, पर वह किसी ना किसी वजह से पूरे मापदंड पर खरे नहीं उतर पा रहे थे। इसी दौरान भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के पूर्व निदेशक और तमिलनाडु से आने वाले माइलस्वामी अन्नादुरई और सामाजिक कार्यकर्ता तुषार गांधी के नामों पर चर्चा की। जब इन अहम नामों पर भी आम सहमति नहीं बन पाई, तब मंगलवार दोपहर को खरगे की ओर से सभी घटकों के नुमाइंदों के सामने रेड्डी का नाम सामने रखा गया, जिस पर किसी की ओर से आपत्ति नहीं जताई गई।
बताया जाता है कि रेड्डी का नाम कांग्रेस शासित तेलंगाना की सोशल इंजीनियरिंग से भी जुड़ा रहा है। वहां की सरकार ने सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, रोजगार, राजनीतिक और जातिगत सर्वेक्षण के डेटा के विश्लेषण के लिए जिस पैनल का गठन किया था, उसकी अगुआई रेड्डी ने ही की है। वहीं, टीएमसी जैसे दलों की ओर से यह साफ कर दिया गया था कि इंडिया ब्लॉक की ओर से उम्मीदवारी में जो भी व्यक्ति सामने आए, वह गैर राजनीतिक हो। इसलिए रेड्डी के नाम पर आम सहमति बन गई।
बताया जाता है कि टीएमसी नेत्री व पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तमिलनाडु के नेता स्टालिन से कहा था कि चुनाव को तमिलनाडु बनाम तमिलनाडु बनाने का अच्छा संकेत नहीं जाएगा। फिर बात आई कि बिहार या उत्तर प्रदेश के किसी व्यक्ति को चुना जाए। इस पर कहा गया कि इसे बीजेपी दक्षिण में भुना लेगी। फिर छोटे राजनीतिक नाम से भी परहेज करने पर सहमति बनी। तब सबमें सहमति जस्टिस सुदर्शन रेड्डी के नाम पर हुई। इससे कांग्रेस को लगता है कि वह इस नाम को पेश कर आंध प्रदेश में भी अपनी साख जमा सकती है।
चूंकि, विपक्ष गठबंधन की दक्षिणी राज्यों के दलों पर भी नजर है। विपक्ष के एक नेता ने कहा भी है कि उन्हें उम्मीद है कि वाईआरसीपी अब अपने रुख पर फिर से विचार करेगा। बता दें कि वाईआरएसीपी ने गत सोमवार को ही घोषणा की है कि वह उपराष्ट्रपति पद के लिए एनडीए के उम्मीदवार राधाकृष्णन का समर्थन करेंगे। इसे विपक्ष राधाकृष्णन की उम्मीदवारी का काउंटर मान रही है, जिसके जरिए एनडीए, डीएमके जैसे दलों को सोच में डालना चाहता है।
तीसरा, बीजेपी नीत एनडीए के लिए दक्षिण भारत में अपनी जड़ें जमाना अब भी मुश्किल भरा कार्य है। चूंकि कर्नाटक में उसकी जमी-जमाई सियासी जड़ें भी सूखती चली गई, इसलिए उसकी राजनीतिक मुश्किलों को समझा जा सकता है। जबकि विपक्ष की सियासत के लिए दक्षिण भारत शुरू से ही एक ऐसा उर्वर राजनीतिक मैदान, रहा है, जहां से उसने भाजपा को सदैव मजबूत चुनौती पेश की है। इसलिए कहा जा सकता है कि जारी उपराष्ट्रपति चुनाव में इस पद के लिए घोषित उम्मीदवार रेड्डी पूर्व निर्धारित सियासी लड़ाई का विस्तारित रूप ही है। 
खासकर जिस तरह से एनडीए सहयोगी टीडीपी ने इंडिया ब्लॉक प्रत्याशी राधाकृष्णन के समर्थन का ऐलान किया है, उसका प्रभावी असर भी अब सत्ता पक्ष की रणनीति पर साफ-साफ दिखने भी लगा है और प्रधानमंत्री मोदी ने विपक्षी दलों से भी उपराष्ट्रपति चुनाव में एनडीए प्रत्याशी राधाकृष्णन के लिए सहयोग मांगा है। उनके लिए खुशी की बात यह है कि इंडिया ब्लॉक के डीएमके ने एनडीए प्रत्याशी राधाकृष्णन का समर्थन करने का फैसला किया है।
इसलिए कहा जा रहा है कि उपराष्ट्रपति पद के लिए हो रहा चुनाव दोनों केंद्रीय सियासी गठबंधनों के लिए मौका और चुनौती दोनों लेकर आया है। अगर सौ फीसदी वोटिंग होती है, तो दोनों सदनों में मिलाकर चुनाव में जीत के लिए 394 वोट चाहिए होंगे। जबकि एनडीए के पास 422 का संख्या बल है। चूंकि उपराष्ट्रपति का चुनाव गुप्त मतदान द्वारा होता है और सदस्य पार्टी व्हिप से नहीं बंधे होते हैं। इसलिए सरकार और विपक्ष, दोनों के शक्ति प्रदर्शन के लिए यह मौके के साथ साथ चुनौती भी है। 
यही वजह है कि दोनों राजनीतिक गुट की तरफ से अपने अपने समर्थन का दायरा बढ़ाने की कोशिश हो रही है। खासतौर पर दक्षिण से आने वाले क्षेत्रीय दलों पर एनडीए और इंडिया ब्लॉक दोनों की नजरें होंगी। बताया जा रहा है कि मौजूदा उपराष्ट्रपति चुनाव में वैचारिक टकराव भी बढ़ेगा, क्योंकि उपराष्ट्रपति का पद किसी पार्टी का नहीं होता। इसलिए यदि इसकी गरिमा को देखते हुए अगर सर्वसम्मति से किसी को चुना जाता, तो ज्यादा अच्छा रहता। 
हालांकि अभी की राजनीतिक परिस्थितियों में ऐसी संभावना दूर-दूर तक नजर नहीं आती है। देश में पिछले कुछ बरसों से जिस तरह का तनातनी भरा राजनीतिक माहौल है, उसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष ज्यादातर मौकों पर दो विपरीत ध्रुवों पर नजर आते हैं। वहीं, जिन मामलों में सदन में सहमति की मांग थी, वहां भी सहमति नहीं बल्कि असहमति दिखी। जबकि यह तो चुनाव तय ही था, जहां  वैचारिक लड़ाई व उससे निकलने वाला अंजाम दोनों ही महत्वपूर्ण है।
चूंकि उपराष्ट्रपति का पद राज्यसभा के सभापति के दृष्टिगत एक अहम जिम्मेदारी भी समझी जाती है। इसलिए इस पद के इर्द-गिर्द हाल के महीनों में बहुत असाधारण हलचल देखने को मिली है। यही वजह है कि निवर्तमान उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ जिन हालात में और जैसे गए, उसे तो कदापि अच्छा नहीं कहा जा सकता है। इसलिए उम्मीद की जाती है कि यह चुनाव बेहतर माहौल में और इस पद के सम्मान को देखते हुए उसके हिसाब से लड़ा जाएगा। जीत जिसकी भी हो, उस पर लोकतात्रिक मूल्यों और संसदीय परंपराओं को आगे ले जाने की अहम जिम्मेदारी होगी। फिर भी यह सवाल मौजूं है कि एक देश, एक चुनाव का नारा देने वाली भाजपा व उसके सहयोगियों ने देश पर यह चुनाव असमय क्यों थोपा? 
– कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक

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